भक्त बहनों व भाइयों, संतोषी माता की कथा प्रारंभ करने से पहले हम आपको संतोषी माता के व्रत की विधि बतायेंगे। सुख संतोष की देवी माँ संतोषी के पिता गणेश और माता रिध्धि-सिद्धि हैं | रिध्धि-सिद्धि धन, धान्य, सोना, चांदी, मूंगा, आदि रत्नो से भरा परिवार होने के कारण इन्हे प्रसन्नता, सुख-शांति और मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाली देवी भी माना गया है| सुख तथा सौभाग्य की कामना से माता संतोषी के 16 शुक्रवार तक व्रत किये जाने का विधान है|
संतोषी माता का लो नाम जिससे बन जाएं सारे काम, बोलो संतोषी माता की जय।
इस व्रत को करने वाला कथा कहते और सुनते समय हाथ में गुड़ और भुने हुए चने रखे तथा सुनने वाले संतोषी माता की जय इस प्रकार जय जयकार मुख से बोलते जाएं… कथा समाप्त होने पर हाथ का गुड़ और चना गोमाता को खिलायें, कलश में रखा हुआ गुड़ चना सबको प्रसाद के रूप में बाँट दें, कथा से पहले कलश को जल से भर लें, उसके ऊपर गुड़ चने से भरा कटोरा रखें, कथा समाप्त तथा आरती करने के बाद…
कलश के जल को घर में सब जगहों पर छिड़कें और बचा हुआ जल तुलसी की क्यारी में डाल दें, सवा आने का गुड़ चना लेकर माता का व्रत करें सवा पैसे का भी गुड़ लें तो कोई आपत्ति नहीं, गुड़ घर में हो तो लें, विचार न करें क्यों की माता भावना की भूखी हैं… कम ज्यादा का कोई विचार नहीं इसलिए जितना भी बन पड़े श्रद्धा से अर्पण करें श्रद्धा और प्रेम से प्रसन्न मन होकर माता का व्रत करना चाहिए, व्रत के उद्यापन में अढ़ाई सेर खाझा, मोमनदार पूड़ी, खीर, चने का साग जरूर रखें...
घी का दीपक जला कर संतोषी माता की जय जयकार बोलें तथा नारियल फोड़ें। इस दिन घर में कोई खटाई न खाये न स्वयं खाएं और न ही किसी दूसरे को खाने दें इस बात का ध्यान रखें, कुटुम्बी न मिलें तो ब्राह्मणों के, रिश्तेदारों के या पड़ोसियों के बालक बुलायें, उन्हें खटाई की कोई वस्तु न दें तथा भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा दें, नगद पैसे न दें बल्कि कोई वस्तु दक्षिणा में दें| व्रत करने वाला कथा सुन, प्रसाद ले एक समय भोजन करे, इससे माता प्रसन्न होगी, दुःख दरिद्रता दूर होगी तथा मनोकामना पूर्ण होगी|
माँ संतोषी के जन्म की कथा:
कहा जाता है कि एक बार रक्षाबंधन के त्यौहार पर भगवान् श्री गणेश अपनी बहन के साथ यह त्यौहार मना रहे थे, तभी उनके पुत्रों (शुभ तथा लाभ) ने भी इस त्यौहार को मानाने की बात कही और अपने पिता से एक बहन की मांग करने लगे| भगवान् श्री गणेश ने पहले तो मना कर दिया, परन्तु बाद में अपनी बहन, पत्नियों (रिध्धि-सिध्दि) और अपने पुत्रों के बार बार कहने पर उन्होंने एक कन्या प्रकट की तथा इस कन्या का नाम संतोषी रखा और इस प्रकार माँ संतोषी का जन्म हुआ|
माँ संतोषी का विवरण:
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पद : देवी
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पिता : भगवान् श्री गणेश
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माता : रिध्धि और सिद्धि
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भाई : शुभ और लाभ
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अस्त्र : तलवार, चावल से भरा हुआ सोने का पात्र और त्रिशूल
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सवारी : शेर
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आसन : कमल का फूल
माँ संतोषी के स्वरुप का वर्णन :
माँ संतोषी हमें केवल निर्मलता और शांति ही प्रदान नहीं करती बल्कि अपने सभी भक्तों की बुरी बलाओं से रक्षा करती हैं| उनके बायें हाथ में तलवार और दाएं हाथ में जो त्रिशूल है| वह इसी बात का प्रतीक है कि माता के भक्त उनके संरक्षण में हैं| ऐसी मान्यता है कि माता के चार हाथ हैं| अपने भक्तों के लिए तो उनके दो ही हाथ प्रकट रूप में हैं, परन्तु अन्य दो हाथ उन बुरी शक्तियों के लिए है, जो सच्चाई और अच्छाई के रास्ते में रूकावट पैदा करते हैं| माँ संतोषी का रूप बहुत ही शांत, सौम्य और सुन्दर है, जो भक्तों को मंत्र मुग्ध कर देता है
पूजा के लिए आवश्यक सामाग्री:
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माँ संतोषी का फोटो,
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प्रसाद के रूप में चना और गुड़,
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आरती के लिए कपूर,
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कलश स्थापना के लिए नारियल,
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माता के फोटो कि स्थापना के लिए लकड़ी का टेबल,
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हल्दी मिली हुई पीली चावल
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कलश,
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अगरबत्ती,
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पान के पत्ते,
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फूल,
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दीपक,
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हल्दी,
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कुमकुम
माता संतोषी के पूजा की रीती-रिवाज़:
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माँ संतोषी की आराधना विशेष रूप से शुक्रवार के दिन की जाती है|
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इनकी अर्चना के लिए लगातार 16 शुक्रवार तक व्रत रखा जाता है और पूजा की जाती है|
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अंत में उद्यापन किया जाता है जिसमे की खट्टी चीज़ों का प्रयोग वर्ज़ित है| ऐसा करने से मनोवांक्षित फलों की प्राप्ति होती है|
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शुक्रवार के दिन प्रातः सिर से स्नानादि करके माता का फोट एक स्वच्छ देव स्थान पर रखते हैं और एक छोटे कलश की स्थापना करते हैं|
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अब माता का फोटो पुष्प इत्यादि से सुसज्जित करते हैं|
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अब चना (जो कम से कम 6
घंटे तक पानी में भीगा हो) अथवा बेंगल ग्राम के साथ गुड़ और केला प्रसाद के रूप में रखते हैं|
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अब फोटो के सामने दिया जलाते हैं, मंत्र का उच्चारण करते हैं, माता की आरती उतारते हैं और फिर प्रसाद ग्रहण किया जाता है|
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आप चाहें तो पूरा दिन उपवास रखें अथवा दिन में एक बार भोजन ग्रहण करें| परन्तु हमेशा इस बात का ध्यान रखें कि आपको इस पुरे दिन में खट्टे खाद्य पदार्थ का सेवन नहीं करना है|
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आपको यह संपूर्ण प्रक्रिया 16 शुक्रवारों तक करनी है और
16 शुक्रवार के पश्चात कार्य सिध्ध होने पर ही व्रत का उद्यापन करना है| जिसमे की आपको आठ बच्चों को भोजन करना है| परन्तु यहाँ भी इस बात का ध्यान रखें कि उन्हें कोई भी खट्टे पदार्थ खाने को न दिए जाएं और न ही उन्हें आप पैसे दें जिसका उपयोग वो खट्टे पदार्थ खाने में कर सकते हैं|
अब आप संतोषी माता के व्रत की कथा सुनिये
एक बुढ़िया थी और उसके सात बेटे थे, छः कमाने वाले थे और एक निकम्मा था| बुढ़िया माँ छहों पुत्रों की रसोई बनाती, भोजन कराती और पीछे से जो कुछ बचता वो सातवें को देती थी, परन्तु सातवाँ पुत्र बड़ा भोला भला था मन में कुछ विचार न करता एक दिन वो अपनी पत्नी से बोला देखो मेरी माता का मुझ पर कितना प्रेम है वो बोली क्यों नहीं सबका जूठा बचा हुआ जो तुमको खिलाती है वो बोला ऐसा नहीं हो सकता मै जब तक आखों से नहीं देखूँ मान नहीं सकता, पत्नी ने हंस कर कहा देख लोगे तब तो मानोगे?
कुछ दिन बाद बड़ा त्यौहार आया घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमा के लड्डू बने, वो जांचने को सर में दर्द का बहाना कर पतला कपड़ा सर पर ओढ़ कर रसोई घर में सो गया और कपड़े में से सब देखता रहा, छहों भाई भोजन करने आये उसने देखा माँ ने उनके लिए सुन्दर सुन्दर आसन बिछाये सात प्रकार की रसोई परोसी वो आग्रह करके परोसती रही वो देखता रहा, छहों भाई भोजन कर उठे तब माँ ने उनकी जूठी थालियों में से लड्डुओं के बचे हुए टुकड़ों को उठाया और एक लड्डू बनाया जूठन साफ़ कर बुढ़िया माँ ने पुकारा, उठ बेटा छहों भाई भोजन कर गये अब तू ही बाकी है उठ भोजन कर ले, वो कहने लगा माँ मुझे भोजन नहीं करना मै परदेश जा रहा हूँ, माता ने कहा कल जाना हो तो आज ही जा वो बोला हाँ हाँ जा रहा हूँ ये कह कर वो घर से निकल गया, चलते समय उसे पत्नी की याद आयी वो गौसाला में कंडे थाप रही थी, वह जाकर बोला मेरे पास तो कुछ नहीं ये अंगूठी है सो ले लो और अपनी कोई निशानी मुझे दो, वो बोली मेरे पास क्या है ये गोबर भरा हाथ है ये कहकर उसकी पीठ पर गोबर के हाथ की थाप मार दी और वो चल दिया, चलते
चलते दूर देश में पहुंचा वहाँ पर एक साहूकार की दुकान थी वहाँ जाकर बोला सेठ जी
मुझे नौकरी पर रख लो साहूकार को जरूरत थी साहूकार ने कहा काम देख कर दाम मिलेंगे| अब उसे
साहूकार की नौकरी मिल गयी वो सवेरे सात बजे से बारह बजे रात तक काम करने लगा कुछ
ही दिन में वो दुकान का लेन देन, हिसाब किताब, ग्राहकों को
माल बेचना सारा काम करने लगा साहूकार के सात आठ नौकर थे वे सब चक्कर खाने लगे ये
बहुत होशियार बन गया है!!!
सेठ ने भी काम देखा और तीन महीने में ही उसे मुनाफे का साझीदार बना लिया इस प्रकार बारह वर्ष में वो नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उस पर छोड़ कर बाहर चला गया|
इधर उसकी पत्नी पर क्या बीती सो सुनो सास ससुर उसे दुःख देने लगे सारी गृहस्ती का काम करा कर उसे लकड़ी लेने जंगल में भेजते इस बीच घर की रोटियों के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बना कर रख दी जाती और फूटे नारियल की नरेली में पानी दिया जाता इस तरह दिन बितते रहे एक दिन वो लकड़ी
लेने जंगल की ओर
जा रही थी कि रास्ते में बहुत सी स्त्रियाँ संतोषी माता का व्रत करती दिखाई
दीं वह वहीं खड़ी होकर कहने लगी बहनों ये तुम किस देवता का व्रत करती हो और इसके करने से क्या फल होता है? इस व्रत के
करने की क्या विधि है? यदि
तुम अपने इस व्रत का विधान मुझे समझाकर कहोगी तो मै तुम्हारा बड़ा एहसान मानूंगी, तब उनमें से एक
स्त्री बोली, सुनो
ये संतोषी माता का व्रत है इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का
नाश होता है,
लक्ष्मी आती है,
मन की चिंतायें दूर होती हैं घर में सुख होने से मन को प्रसन्नता
और शांति मिलती है, निपुत्री को पुत्र मिलता है, प्रियतम बाहर
गया हुआ हो तो शीघ्र आ जाता है, कुँवारी कन्या को मन पसंद वर मिलता है, कचहरी
में बहुत दिनों से मुक़दमा चलता हो तो ख़त्म हो जाता है, कलह
क्लेश की निवृति होती है, सुख शांति होती है, घर में धन जमा होता है, पैसा जायदाद
का लाभ होता है तथा और भी मन में जो कुछ कामना हो सब संतोषी माता की कृपा से पूरी
हो जाती है इसमें कोई संदेह नहीं, वो पूछने लगी ये व्रत कैसे किया? जाये
ये भी बताओ तो बड़ी कृपा होगी, स्त्री कहने लगी सवा आने का गुड़
चना लेना इच्छा हो तो सवा पांच आने का लेना या सवा रुपये का भी सहूलियत अनुसार
लेना, बिना
परेशानी श्रद्धा और प्रेम से जितना भी बन सके सवाया ही लेना| सवा पांच पैसे
से सवा पांच आने तथा इससे भी ज्यादा शक्ति और भक्ति अनुसार गुड़ और चना लेना, हर शुक्रवार को
निराहार रह कथा कहना सुनना इसके बिच क्रम टूटे नहीं लगातार नियम का पालन करना, कथा सुनने वाला
कोई न मिले तो घी का दीपक जला उसके आगे जल के पात्र को रख कथा कहना, परन्तु नियम न
टूटे, जब तक
कार्य सिध्ध न हो नियम पालन करना और कार्य सिध्ध हो जाने पर व्रत का उद्यापन करना, तीन
मास में माता पूरा फल प्रदान करती हैं यदि किसी के गृह खोटे भी हो तो भी माता एक
वर्ष में अवश्य कार्य सिद्धः करती हैं, कार्य सिद्धः होने पर ही उद्यापन करना चाहिये बीच में नहीं, उद्यापन
में अढ़ाई सेर आटे का खाझा तथा इसी अनुसार से खीर तथा चने का साग करना, आठ
लड़कों को भोजन कराना, जहाँ तक मिले देवर, जेठ, भाई, बंधू, कुटुंब के लड़के लेना अगर न मिलें तो रिश्तेदारों और
पड़ोसियों के लड़के बुलाना उन्हें भोजन करा यथाशक्ति
दक्षिणा दे माता का नियम पूरा करना, उस दिन घर में कोई भी खटाई न खाये इस बात का ध्यान रखना, ये सुन बुढ़िया
की बहु चल दी,
रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से गुड़ चना ले माता के व्रत
की तैयारी कर आगे चली
और सामने मंदिर देख पूछने लगी, ये मंदिर किसका है? सब कहने लगे ये
संतोषी माता का मंदिर है,
ये सुन माता के मंदिर में जा माता के चरणों में लोटने लगी, विनती करने लगी, माँ मै दीन हूँ, निपट मुर्ख हूँ, व्रत के नियम
कुछ जानती नहीं,
मै बहुत दुखी हूँ| हे माता जग जननी मेरा दुःख दूर कर मैं तेरी शरण में हूँ| माता
को दया आई, एक शुक्रवार बिता की दूसरे शुक्रवार को ही इसके पति का पत्र
आया और तीसरे शुक्रवार को उसका भेजा हुआ पैसा आ पहुंचा| ये सभी
बातें देख कर जेठानी मुँह सिकोड़ने लगी और बोली इतने दिनों इतना पैसा आया इसमें
क्या बड़ा है? लड़के ताने मारने लगे की काकी के
पास अब पत्र आने लगे, रुपया आने लगा, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी, अब तो काकी
बुलाने से भी नहीं बोलेगी, बेचारी सरलता से कहती, भैया पत्र आये, रुपया आये तो हम सबके लिए
अच्छा है ऐसा कह कर आँखों में आंसू भर कर संतोषी माता के मंदिर में आ
मातेश्वरी के चरणों में गिर कर रोने लगी माँ मैंने
तुमसे पैसा नहीं माँगा मुझे पैसे से क्या काम है? मुझे तो अपने
सुहाग से काम है मैं तो अपने स्वामी के दर्शन और सेवा मांगती हूँ तब माता ने
प्रसन्न होकर कहा जा बेटी तेरा स्वामी आयेगा यह सुन खुशी से बावली हो घर जाकर काम
करने लगी अब संतोषी माँ विचार करने लगी इस भोली पुत्री से मैंने कह तो दिया की
तेरा पति आयेगा पर आयेगा कहा से? वो तो इसे स्वपन में भी याद नहीं करता इसे
याद दिलाने तो मुझे ही
जाना पड़ेगा|
इस प्रकार माता उस बुढ़िया के बेटे के पास जा स्वपन में प्रकट हो कहने लगी
साहूकार के बेटे सोता है या जागता है? वो बोला माता सोता भी नहीं हूँ जागता भी नहीं हूँ बीच में
ही हूँ, कहिये
क्या आज्ञा
है? माँ
कहने लगी तेरा
घरबार है या नहीं?
वो बोला सब कुछ है माता माँ,
बाप, भाई, बहन, पत्नी, क्या कमी है? माँ बोली पुत्र
तेरी घरवाली कष्ट उठा रही है वो बोला हाँ माँ ये तो मुझे मालूम है, परन्तु जाऊं
कैसे? परदेश
की बात है लेनदेन का कोई हिसाब नहीं, कोई जाने का रास्ता नज़र नहीं आता कैसे चला जाऊं? माँ
कहने लगी मेरी बात मान, सवेरे नहा धो कर संतोषी माता का नाम ले घी का दीपक जला
दंडवत कर दूकान पर जा बैठना देखते देखते तेरा सब लेनदेन चुक जायेगा, जमा
माल बिक जायेगा शाम होते होते धन का ढेर लग जायेगा| अब तो वो सवेरे
बहुत ही जल्दी उठ मित्र बंधुओं से अपने सपने की बात कहता है वे सब उसकी बात अनसुनी
कर उसका मज़ाक उड़ाने लगे और बोले कही सपने भी सच्चे होते हैं? लेकिन
उनमें से एक बूढ़ा बोला देखो भाई मेरी बात मान इस तरह साँच या झूठ कहने के बदले
माता ने जैसा कहा है वैसा ही करना तेरा क्या जाता है? अब वह
बूढ़े की बात मान कर नहा धो कर संतोषी माता को दण्डवत कर घी का दीपक जला दूकान पर
जा बैठता है| थोड़ी देर में वो क्या देखता है!!! कि देने वाले
रूपया लाये और लेने वाले हिसाब लाये, कोठे में भरे सामानों के खरीददार
नगद दाम में सौदा करने लगे, शाम तक धन का ढेर लग गया, मन में
माता का नाम ले, प्रसन्न हो घर जाने के वास्ते गहना, कपड़ा, सामान
इत्यादि खरीदने लगा और इस तरह यहाँ के काम से निपट घर को रवाना हुआ|
वहाँ उसकी पत्नी बेचारी जंगल में
लकड़ी लेने जाती है और लौटते समय माता जी के मंदिर पर विश्राम करती है, वो तो उसका रोज़ रुकने का स्थान ठहरा, दूर धुल उड़ती देख वो माता से पूछती है, हे माता ये धुल कैसी उड़ रही है? माँ कहती है पुत्री तेरा पति आ रहा है, अब तू ऐसा कर लकड़ियों के तीन बोझ बना एक नदी के किनारे रख, दूसरा मेरे मंदिर पर और तीसरा अपने सर पर रख, तेरे पति को लकड़ी का गठ्ठा देख मोह पैदा होगा... वो वहाँ
रुकेगा नाश्ता, पानी बना खा कर माँ से मिलने
जायेगा तू लकड़ी का बोझ उठा कर जाना और बीच आँगन में गठ्ठा डाल कर
तीन आवाजें ज़ोर से लगाना...लो सासु जी लकड़ियों का गठ्ठा लो, भूसी कि रोटी दो और नारियल के
खोपड़ी में पानी दो... आज कौन मेहमान आया है? माँ कि बात सुन कर उसने कहा बहुत
अच्छा माता जी ऐसा कह कर मन प्रसन्न करके लकड़ियों के तीन गठ्ठे ले आई...एक नदी के तट पर,
एक माता के मंदिर पर रखा तो इतने में ही वो मुसाफिर आ पहुंचा... सुखी लकड़ी देख उसकी इच्छा हुई कि अब यहीं निवास करें और भोजन बना खा पी कर गाँव
चलें...इस प्रकार भोजन खा विश्राम कर गाँव को गया उसी समय उसकी पत्नी सर पर लकड़ी
का गठ्ठा लिए आती है उसे आँगन में डाल कर ज़ोर से तीन आवाज़ें देती है... लो सासु जी
लकड़ी का गठ्ठा लो, भूसी कि रोटी दो और नारियल के खोपड़े में पानी दो...आज कौन
मेहमान आया है? ये सुन कर उसकी सास अपने दिए हुए कष्टों को भुलाने हेतु
कहती है... बहु ऐसा क्यों कहती हो? तेरा मालिक ही तो आया है, बैठ मीठा भात
खा कर कपडे गहने पहन| इतने में आवाज़ सुन कर उसका स्वामी बहार आता है और अंगूठी
देख व्याकुल हो जाता है!!! माँ से पूछता है ये कौन है? माँ कहती है ये
तेरी पत्नी है आज बारह वर्ष हो गए जब से तू गया है तब से सारे गाँव में जानवर कि
तरह भटकती फिरती है,
काम काज कुछ घर का करती नहीं और उल्टा चार समय आकर खा जाती है, अब तुझे देख कर
भूसे कि रोटी और नारियल के खोपड़े में पानी मांगती है... वो लज्जित हो बोला ठीक है
माँ मैंने इसे भी देखा है और तुम्हें भी, अब मुझे दूसरे घर कि चाबी दो तो मैं उसमे रहूँगा| ठीक है
बेटा जैसी तेरी मर्ज़ी ये कह कर माँ ने चाबियों का गुच्छा पटक दिया उसने चाबियों का गुच्छा लेकर दूसरे कमरे का सारा सामान
जमाया और साफ़ सफाई कर पूरा घर सजा डाला एक दिन में ही वहां राजा के महल जैसा ठाठ
बाठ बन गया, अब क्या था वो दोनों पति पत्नी अब सुख भोगने लगे| इसके
पश्चात् अगला शुक्रवार आया पत्नी ने अपने पति से कहा मुझे माँ संतोषी का उद्यापन
करना है...उसका पति ये सुन कर बोला बहुत अच्छा खुशी से कर लो इसके
तत्पश्चात ही वो उद्यापन कि तैयारी में लग गयी
तथा जेठ के लड़के को भोजन के लिए कहने गयी और उसने मंज़ूर किया, परन्तु पीछे से
जेठानी अपने बच्चों को सीखा देती है कि देखो रे भोजन के समय सब लोग खटाई खाने को
मांगना जिससे कि इसका उद्यापन पूरा न हो लड़के भोजन करने आये और खीर पेट भर खाया
परन्तु उनके माँ कि बात याद आते ही कहने लगे... हमें कुछ खटाई खाने को दो खीर खाना
हमें भाता नहीं देख कर अरुचि होती है लड़के उठ खड़े हुए बोले पैसे लाओ, बेचारी भोली
बहु कुछ जानती नहीं थी सो उसने उन्हें पैसे दे दिए| लड़के उसी समय
उठ कर इमली लेकर खाने लगे ये देख कर माता जी ने कोप किया और तत्पश्चात ही उस नगर के
राजा के दूत उसके पति को पकड़ कर ले गए अब तो बहु के जेठ जेठानी मनमानी ही खोटे वचन
कहने लगे कि लूट लूट कर धन लाया था सो राजा के दूत उसे पकड़ कर ले गए हैं अब सब
मालूम हो जायेगा जब जेल कि रोटी खायेगा, बहु से ये वचन सहन नहीं हुआ और वो रोती रोती माता के मंदिर
में गयी और कहने लगी माता तुमने ये क्या किया? हँसा कर क्यों
रुलाने लगी?
माता बोली पुत्री तूने उद्यापन करके मेरा व्रत भंग किया है इतनी जल्दी सब
बातें भूला दी... वो कहने लगी माता भूली तो नहीं हूँ न कुछ अपराध किया है मुझे तो
लड़कों ने भूल में डाल दिया... मैंने भूल से उन्हें पैसे दे दिये मुझे क्षमा करो
माँ माँ बोली ऐसी भी कहीं भूल होती है? वो बोली माँ माफ़ कर दो मैं फिर से तुम्हारा उद्यापन
करुँगी...तब माँ बोली कि अब भूल मत करना वो बोली हे माँ अब भूल नहीं होगी...अब
कृपा करके बताओ कि मेरे पति कैसे आएंगे? माँ बोली पुत्री जा तेरा मालिक तुझे रास्ते में ही आता
मिलेगा|
अभी जैसे ही वह निकली थी कि रास्ते
में उसे उसका पति आता हुआ मिल गया... तब उसकी पत्नी ने अपने पति से पूछा कि तुम
कहा चले गए थे? तो वो कहने लगा इतना धन जो कमाया
है उसी का क़र राजा ने माँगा था वही भरने गया था तब वो प्रसन्न हो बोली कि भला हुआ
अब घर चलो| कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार का दिन
आया वो बोली मुझे माता का उद्यापन फिर से करना है तो उसके पति ने कहा ठीक है कर
लो...इसके पश्चात् उसकी पत्नी फिर से जेठ के लड़कों को भोजन के लिए आमंत्रित करने
गयी... जेठानी ने एक दो बातें सुनाई और अपने लड़कों को सीखा दिया कि तुम पहले ही खटाई
माँगना लड़के भोजन के लिए गए और खाना प्रारम्भ करने से पहले ही कहने लगे कि हमें
खीर खाना नहीं भाता जी बिगड़ता है कुछ खट्टा खाने को दो, बहु बोली खटाई
खाने को नहीं मिलेगी खाना हो तो खीर खाओ यह कह कर ब्राह्मणो के लड़के बुला कर भोजन
कराने लगी यथाशक्ति दक्षिणा के जगह पर एक एक फल उन्हें दिया इससे संतोषी माता
प्रसन्न हुईं माता कि कृपा होते ही नवमे मास उसे चन्द्रमा के सामान सुन्दर सा
पुत्र पैदा हुआ, पुत्र को लेकर वह प्रतिदिन माता के मंदिर जाती तब माँ ने
सोचा कि रोज़ ये आती है आज क्यों न मैं ही उसके घर चलूँ? इसका
आसरा देखूं तो सही ये विचार कर माता ने भयानक रूप बनाया गुड़ और चने से सना मुख ऊपर
से सूंड के समान होंठ उस पर मख्खियां भिनभिना रही थीं ऐसा रूप माँ ने बनाया और
उसके घर कि ओर चल दीं… उसके घर के देहलीज़ पर पैर रखते ही बहु की सास चिल्लाई देखो रे कोई
चुड़ैल डाकिनी चली आ रही है, लड़कों इसे भगाओ नहीं तो सबको खा जायेगी... लड़के डरने लगे और चिल्ला कर खिड़की बंद करने लगे, बहु
ये सब रोशनदान से देख रही थी वो प्रसन्नता से पगली होकर चिल्लाने लगी कि आज मेरी
माता मेरे घर आयी है ये कह कर बच्चे को दूध पिलाने से हटा देती है इतने में ही
उसकी सास का क्रोध फुट पड़ता है और कहती है देखो रे ये मुई इस चुड़ैल को देख कर कैसे उतावली हुई जो कि
बच्चे को पटक दिया इतने में माँ के प्रताप से जहाँ देखो वहां लड़के ही लड़के नज़र आने
लगे बहु बोली माँ जी मैं जिनका व्रत करती हूँ ये वही संतोषी माता हैं इतना कहते ही
उसने झट से घर के सारे किवाड़ खोल दिये
फिर सब ने माता के चरण पकड़ लिए और विनती कर कहने लगे हे
माता हम मुर्ख हैं,
हम अज्ञानी हैं तुम्हारे व्रत कि विधि हम नहीं जानते, तुम्हारा व्रत
भंग कर हमने बड़ा अपराध किया है सो हे माता आप हमारे अपराध को क्षमा करो…
इस प्रकार माता प्रसन्न हुईं और
सबका कल्याण किया|
हे माता आपने जैसा फल बहु को दिया वैसा ही फल सबको प्रदान
करो तथा जो ये कथा
सुने या पढ़े उसकी समस्त मनोकामना पूर्ण हो...
हे भक्त बंधुओं सच्चे मन से बोलो
"संतोषी माता की जय"
इति संतोषी माता व्रत कथा
जय संतोषी माँ
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